दंगे और समाज - अटूट रिश्ता !!!
दंगे हर समाज का अभिन्न अंग हैं । दंगे होना कोई नई बात नहीं है । हजारों सालों से दंगों के बारे में दुनिया पढ़ती और सुनती आ रही है । ऐसा भी नहीं है कि दंगे बस भारत में ही होते हो । दुनिया का शायद ही कोई ऐसा स्थान होगा जहां दंगे ना होते हो । दंगे कहीं धर्म के आधार पर , कहीं क्षेत्र के आधार पर , कहीं भाषा के आधार पर , कहीं जाति के आधार पर , कहीं नदियों के बंटवारे के आधार पर , कहीं खेलों में हार जीत के आधार पर और ना जाने कितने आधार हैं जिनकी वजह से समाज में हमेशा दंगे होते हैं ।
दंगे दुनिया के हर कोने में राजनीतिक वर्ग का प्रिय विषय हैं । हमेशा राजनीति के सभी वर्गों को दंगों का कुछ ना कुछ फायदा जरूर होता है । यदि नुकसान होता है तो वह होता है आम आदमी का जिसे यह पता ही नहीं चल पाता कि वह कब किसके हाथ की कठपुतली बन गया और दंगों में अपना सब कुछ न्योछावर कर बैठा । दंगे मानवता के नाम पर अभिशाप हैं । लेकिन शायद मनुष्य की सोच ही ऐसी है कि दंगों को हमेशा के लिए कभी रोका नहीं जा सकता । चाहे राजशाही रही हो , चाहे कुलीन तंत्र रहे हों , चाहे तानाशाही रही हो और चाहे लोकतंत्र रहा हो दंगे हमेशा होते आए हैं । लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता के लालची वर्ग के लिए दंगे वोटों का ढेर साबित होते रहे हैं।
स्वाभाविक है दंगों से भारत भी कभी अछूता नहीं रहा । आजादी से पहले भी और आजादी के बाद भी हम भारत के इतिहास में दंगों के बारे में पढ़ते आयें हैं और दंगे आज भी जारी हैं । यदि हम बहुत प्राचीन इतिहास में न जाए और बस आजादी के समय से ही बात करें तो भी हमें ऐसे ऐसे दंगों का वर्णन मिलता है जिन्हें पढ़कर आपकी रूह कांप जाएगी । हर दंगे पर राजनीति होती है । एक वर्ग दूसरे पर और दूसरा वर्ग पहले पर दंगों का आरोप लगाता है । सच बात यह है कि न जाने कितनी बार ऐसा होता है कि ना पहला पक्ष दंगा करने के लिए उत्तरदाई होता है और ना दूसरा पक्ष दंगे के लिए उत्तरदाई होता है ।
अचानक कोई घटना घटती है और मौके पर मौजूद असामाजिक तत्व फायदा उठाते हुए दंगा कर देते हैं । समाज में हमेशा एक ऐसा वर्ग रहा है जिसको या तो दंगों में मजा आता है या उसे दंगों से फायदा होता है । उसकी कोई भी जाती हो सकती है और कोई भी धर्म हो सकता है ।
भारत के बंटवारे के समय जो दंगे हुए वह शायद दुनिया के इतिहास में विरले ही थे । ट्रेन लाशों से भरकर आया करती थीं और उन्हें उतारने वाला कोई होता नहीं था । सीमा के इस पार और सीमा के उस पार हत्याओं का दौर था । लाशों का ढेर था । आगजनी थी । लूटमार थी और सबसे बड़ी बात यह थी उन दंगों के लिए कभी भी कोई भी दंडित नहीं हुआ । सच यह है कि वह दंगे सत्ता के मोह के कारण हुए थे । सीमा के दोनों ओर एक राजनीतिक वर्ग सत्ता प्राप्त करने की खुशी में नाचने में व्यस्त था । एक तरफ लाशों का ढेर था तो दूसरी और सत्ता की खुशी । उस वक्त पाकिस्तान में मुस्लिम लीग का नेतृत्व और भारत में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व सत्ता के जश्न में डूबा था । बड़े अफसोस के साथ यह बात लिखनी पड़ रही है कि कांग्रेस के जिन प्रमुख नेताओं को दंगों की रोकथाम और पीड़ितों की व्यवस्था में जुटना था, वह लोग सत्ता की चाभी हाथ में लेने की तैयारियों में व्यस्त थे ।
देश का बच्चा-बच्चा जानता है भारत में उस त्रासदी के लिए कौन जिम्मेदार थे और कौन सत्ता के जश्न में डूबे हुए थे। अफसोस तब और ज्यादा होता है जब उन्हीं के वंशज आज दंगों के लिए घड़ियाली आंसू बहाते हैं।
हमने इतिहास में भागलपुर दंगों के बारे में बहुत कुछ सुना है , मेरठ के दंगों के बारे में बहुत कुछ सुना है , मुरादाबाद के दंगों के बारे में बहुत कुछ सुना है। सबसे बड़ी बात यह है कि मुरादाबाद दंगों की जांच के लिए जिस कमीशन को नियुक्त किया गया था , उस कमीशन की रिपोर्ट को ४३ साल तक सिर्फ इसलिए दबाकर रखा गया ताकि दंगो के असली जिम्मेदारों का पता ना लग सके और अपनी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से राजनीतिक लोग एक दूसरे को आरोपित करते रहें । उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने बिना किसी राजनीतिक लाभ और नुकसान के सोचे , मुरादाबाद दंगों की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया । आपको ताज्जुब होगा कि उस रिपोर्ट में लिखा है कि दंगों के लिए ना हिंदू जिम्मेदार थे और ना मुसलमान जिम्मेदार थे बल्कि एक दो वे नेता जिम्मेदार थे जो लगातार चुनाव हार रहे थे । उन्होंने अपने चुनाव की भूमिका बनाने के लिए दंगों की साजिश रची थी ।
संसद के इसी सत्र में मणिपुर के दंगों को लेकर लंबा हंगामा हुआ । संसद में अविश्वास प्रस्ताव रखा गया । उम्मीद थी कि सभी दल राजनीतिक मतभेदों से अलग हटकर मणिपुर के दंगों पर चर्चा करेंगे । लेकिन विपक्ष जो मणिपुर के दंगों के आधार पर ही अविश्वास प्रस्ताव लेकर आया था , वह मणिपुर के दंगों पर चर्चा करने से बचता रहा क्योंकि वह जानता था कि अगर दंगों पर चर्चा होगी तो चेहरे बहुत सारे वेनकाब होंगे । नतीजतन अविश्वास प्रस्ताव पर संपूर्ण चर्चा बस आरोप-प्रत्यारोप तक ही सीमित रही । दंगे भविष्य में ना हो , इस बात पर कोई चर्चा नहीं हुई ।
राजनीतिक समाज जानता है कि दंगों को हमेशा के लिए कभी रोका नहीं जा सकता । दंगों में पीड़ित कोई भी हो लेकिन फायदा नेताओं को होता है । दंगों को यदि कोई रोक सकता है तो वह है आम व्यक्ति । आम समाज जब तक यह नहीं समझेगा कि राजनेता दंगों पर आरोप प्रत्यारोप तो करते हैं लेकिन दंगों को रोकने में उनकी कोई रुचि नहीं होती क्योंकि दंगा किसी एक पक्ष के लिए ही नहीं कई कई पक्षों के लिए फायदेमंद होता है । जिस दिन आम समाज यह बात समझ जाएगा दंगे बंद हो जाएंगे ।
हालांकि कड़वा सच यही है कि दंगों को पूर्ण तरीके से समाप्त तो नहीं किया जा सकता , लेकिन टाला जा सकता है । उसकी विभीषिका को कम किया जा सकता है । यह कड़वा सच है कि दंगे और समाज एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं और इनका अलग होना बहुत मुश्किल है :pray:
लेकिन पाठक गणों से यह जरूर कहूंगा इसका अर्थ आप यह ना लगाएं कि मैं दंगों का समर्थक हूं या मेरा यह मानना है कि दंगे हमेशा होते ही रहेंगे । मेरा सिर्फ यह कहना है कि हमें समाज के राजनीति वर्ग से सावधान रहना चाहिए । दंगों का मूल कारण अधिकांशतः यही वर्ग होता है । यदि हम इस वर्ग से सावधान रहेंगे तो हम दंगों को टाल सकते हैं । दंगे ना हो तो ही अच्छा है क्योंकि दंगा गरीब को डस्ता है , दंगा व्यापारी को डस्ता है , दंगा निरीह और कमजोर व्यक्ति को डस्ता है । इसलिए हमें लगातार ऐसे प्रयास करने चाहिए कि दंगे ना हो और राजनीतिक वर्ग हमें आपस में लड़ा कर दंगों का फायदा न उठा सके।