कांग्रेस - भाजपा और चुनाव आयोग सोचे
चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। वैसे तो सभी राज्यों के चुनाव महत्वपूर्ण हैं लेकिन मध्य प्रदेश , राजस्थान , और छत्तीसगढ़ के चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति को प्रभावित करेंगे । इंडी एलायंस या भाजपा नीत एनडीए जो भी इन तीन राज्यों में बढ़त हासिल करेगा , उसको दो-तीन महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में निश्चित रूप से राजनीतिक लाभ मिलेगा।
लोकसभा चुनाव से दो-तीन माह पूर्व इन राज्यों में कोई पहली बार चुनाव नहीं हो रहे हैं । जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तब भी इन राज्यों में लोकसभा चुनाव से दो-तीन माह पूर्व चुनाव सम्पन्न हुए । केंद्र में इससे पूर्व जब भाजपा सरकार थी तब भी लोकसभा चुनाव से दो-तीन माह पूर्व राज्य विधानसभा चुनाव हुए।
एक स्तंभ लेखक के रूप में मेरा मानना है कि यह सरकारी श्रम और धन की बर्बादी है । जब लोकसभा चुनाव दो-तीन माह बाद होने ही हैं तो ऐसे में राज्य विधानसभा चुनाव कराने का कोई औचित्य नहीं है।कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही इस विषय पर विचार करना चाहिए था।
जब लोकसभा का विशेष सत्र बुलाया गया था तब यह चर्चा थी कि कांग्रेस और भाजपा इस बिषय पर कोई एक राय बनाकर इन चुनावों को टाल सकते हैं । राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है तो दोनों को किसी एक राय पर सहमत होने में दिक्कत नहीं थी । लेकिन दोनों ही दलों के राजनीतिक नेतृत्व ने इस बिषय पर कुछ नहीं सोचा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक राष्ट्र एक चुनाव की बात करते रहे हैं। इस दिशा में काम करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी भी गठित की गई है। लेकिन यह एक लंबी राजनीतिक प्रक्रिया है । फिलहाल कांग्रेस और भाजपा को मिलकर एक ऐसा रास्ता तलाश लेना चाहिए था कि लोकसभा चुनाव से 6 महीने पहले और लोकसभा चुनाव के 6 महीने बाद जिन राज्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं , उन राज्यों के विधानसभा चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ ही करा लिए जाएं । इससे एक ओर धन की बर्बादी रुकती तो दूसरी ओर सरकारी कर्मचारियों को राहत मिलती। सरकारी कर्मचारियों को चुनाव सम्पन्न कराने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है और अन्य सरकारी कामों में व्यवधान पैदा होता है।
लेकिन भारत का यह दुर्भाग्य है कि भारत में राजनीतिक नेतृत्व में कठोर निर्णय लेने की क्षमता नहीं है । कांग्रेस तो आजकल निर्णय लेने की स्थिति में ही नहीं लगती। उसका थिंक टैंक या तो निष्क्रिय कर दिया गया है या हो गया है । कांग्रेस सत्ता के लिए इतनी आतुर है कि वह अपने मूलभूत सिद्धांतों से भी अलग हटकर राजनीति कर रही है । अभी तक कांग्रेस खुलकर जातिवाद की राजनीति करने से बचती थी । भारत में तीसरा मोर्चा खासकर सपा , राजद और जनता दल जैसी पार्टियां जातिवाद की राजनीति करती थीं , लेकिन इन चुनाव में कांग्रेस भी जातिवाद को जमकर हवा दे रही है।
दरअसल कांग्रेस को लगता है कि हिंदुओं को आपस में लड़वाकर ही सत्ता प्राप्त की जा सकती है । कांग्रेस नेतृत्व को लगता है कि देश के विभिन्न राज्यों में 20 से 38% मुस्लिम वोट के साथ , जाति के आधार पर बंटे हुए हिंदुओं का वोट लेकर वह केंद्र सरकार की स्थापना कर सकती है । इसलिए इस चुनाव में कांग्रेस हिंदुओं को लड़वाने की खुलकर राजनीति कर रही है । कांग्रेस ने चूंकि सपा और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों के साथ गठबंधन किया है तो यह दल उसकी इस राजनीतिक सोच को और हवा दे रहे हैं। सबको पता है सपा और राष्ट्रीय जनता दल सिर्फ और सिर्फ साम्प्रदायिक और जातिवाद की राजनीति करते हैं । इनको ना सिद्धांतों से मतलब है , ना आम मतदाताओं से। ईमानदारी से कहूं तो इनका मतलब किसी से नहीं बस एक परिवार को सत्ता सुख इनका उद्देश्य है।
एक जमाना था जब समाजवादी पार्टी में उत्तर प्रदेश के जाने-माने समाजवादी नेता हुआ करते थे लेकिन बहुत जल्द ही उन सभी का प्रभाव क्षीण हो गया और समाजवादी पार्टी प्रदेश में एक तरफा साम्प्रदायिक और जातिवादी राजनीति करने में व्यस्त हो गई।
खैर इस बिषय पर विस्तृत चर्चा करना हमारा आज उद्देश्य नहीं। आज हम इसी बात पर चर्चा करना चाहते हैं कि कांग्रेस , भाजपा और चुनाव आयोग को ऐसे कानूनी हल की तलाश करनी चाहिए कि अगली बार से यदि एक राष्ट्र एक चुनाव का फार्मूला लागू ना भी हो पाए तो कम से कम लोकसभा चुनाव से 6 महीने पहले और लोकसभा चुनाव के 6 महीने बाद जिन राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं उन चुनावों को एक साथ संपन्न करा लिया जाए और यदि इस बार भी सम्भव हो तो प्रयास किया जाना चाहिए।